शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

ग्राम बजट

                           मेरे द्वारा बनाया गया पृष्ठ

9फरवरी जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित मेरा लेख

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

रेल बजट विशेषांक



                              रेल बजट पर मेरे द्वारा बनाया गया ले आउट 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

कांग्रेसी सियासत का शिकार होती अनाधिकृत कॉलोनियां

हिंदुस्तान में एक नहीं बहुत सी संस्कृतियाँ मौजूद  है. हर १०० किलोमीटर पर भाषा बदल जाती हैं ,यह बिलकुल सच है लेकिन इससे भी बड़ा सत्य इस देश की राजनीति का हैं, दरअसल भाषा के साथ साथ हर १०० किलोमीटर पर राजनीतिक हवा भी बदल जाती हैं. विकास की हवा के साथ सत्ता में पहुचे नीतीश कुमार भले ही जातीय राजनीति को नकार रहे हो लेकिन यह सच हैं जिस तबके ने लगातार दूसरी बार बिहार में नीतीश को सत्ता की चाबी देकर कांग्रेस के राहुल (युवा) कार्ड को नकारते हुए कांग्रेस को मुह के बल गिराया वो ही दिल्ली में कांग्रेस की शीला सरकार को सत्ता का सुख दे रहे  हैं महज यह एक उदहारण है समूचे भारत में ऐसे कई उदहारण मिल जाएँगे जो यह साबित करते है हमारी भारतीय राजनीति में जातीय और मुद्दों के कॉकटेल की मांग बहुत हैं. 
                   
आगामी  दिल्ली नगर निगम चुनाव नजदीक हैं इसलिए दिल्ली की सियासत में हलचल होना लाज़मी हैं. हमेशा की तरह कांग्रेस ने एक बार फिर "अनाधिकृत कॉलोनी" कार्ड खेलना शुरू कर दिया आखिर क्यों न खेले दिल्ली की सियासत को तय करने में इन्ही अनाधिकृत कॉलोनियो की भूमिका रही हैं. शीला सरकार की इस परिसनूमा दिल्ली में आज भी १५०० से ज्यादा अनाधिकृत कालोनिया है जिसमे रोजगार की तलाश में आए बिहार, उत्तर प्रदेश के वे लोग रहते  हैंजिन्होंने नितीश को बिहार में सत्ता दिलवाई. समूचे भारत में भले ही राजनीतिक पार्टिया मुस्लिम, पिछड़े, दलित वोट बैंक को बनाने की कवायद में रहती हो लेकिन राजधानी दिल्ली में इन प्रवासी वोट बैंक की क्या कीमत हैं यह कांग्रेस अच्छे से जानती हैं असल में, कांग्रेस ने इंदिरा गाँधी के समय ७०के दशक में ही इन अनाधिकृत कॉलोनियो को उस दौर में नियमित करके अपने वोट बैंक को बनाया था, गरीबी हटाओ का नारा लगाकर इंदिरा ने इस खास तबके में अच्छी पेठ बनाई थी तब से दिल्ली की राजनीति इन्ही प्रवासियों पर निर्भर रही हैं अब जब पुरे देश भर में कांग्रेस बैकफूट पर हैं कांग्रेस ने इन कॉलोनियो को पास करने की झूठी मुहीम छेड़ दी हैं बाकायदा इस बार कमेटी भी गठित कर दी. वही दसूरी तरफ वेश्या, ब्रहमन के वोट बैंक में उलझी विपक्षी पार्टी भाजपा भी कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत में सड़क पर चिल्ला रही हैं  खैर भारतीय राजनीत ऐसे ही चलती है दरअसल दिल्ली की ७०विधान सभा सीटो में से अकेले ३०सीटे इन्ही अनाधिकृत कॉलोनियो में आती है जिसका लाभ हमेशा कांग्रेस को खूब मिलता रहा कांग्रेस ने शुरू से ही आम आदमी का नारा लगाकर विकास की बात कहकर इन (रोजगार की तलाश में आये उत्तर प्रदेश,बिहार) लोगो को बेवकूफ बना कर दिल्ली की सियासत पर कब्ज़ा बनाए रखा.
             
                         यही नहीं २००९ के आम चुनाव के दौरान सोनिया गाँधी ने इन कॉलोनियो को पास करने का लालच देकर प्रोविस्नल कार्ड तक बात डाले थे लेकिन तब से स्तिथि कमोबेश वैसी ही हैं वास्तव में यह कालोनिया शुरू से ही दिल्ली की राजनीति का फैसला करती रही. दिल्ली को परिस बनाने का संकल्प लेने वाली दिल्ली की शीला सरकार की सत्ता का राज यही भोले भाले लोग रहे, ४०साल पहले से बनी ये कॉलोनियो आज भी विकास की राह देख रही हैं लेकिन हर बार चुनाव से पहले इन्हें विकास का झुनझुना पकड़ा दिया जाता हैं देखा जाए तो इन्हें पास(विकास) न करने के पीछे हमारी राजनीतिक व्यवस्था की साजिश रही हैं क्योकि हमारे नेता जानते हैं इन्हें मुख्यधारा की कॉलोनियो से जोड़ने से उनका जनाधार चला जाएगा. भले ही भाजपा का इन तबको में जनधार न रहा हो लेकिन भाजपा ने भी सत्ता में रहते हुए कांग्रेस की ही विकास(पास) न करने की परम्परा को जारी रखा. अब जब निगम में सत्तारूढ़ भाजपा को अपना किला(निगम सचिवालय) छीने जाने का डर सता रहा हैं तो वह भी कांग्रेस की तरह इन कॉलोनियो के लोगो को विकास की काल्पनिक तस्वीर दिखा रही हैं वास्तव में दोनों ही पार्टियों में इस मुद्दों को सुलझाने का राजनीतिक साहस दिखाई नहीं देता लेकिन सबसे ज्यादा जिम्मेदार कांग्रेस रही हैं इनकी राजनीति का अगर कोई शिकार हो रहा है तो ये लोग ही हैं.
                       "गरीबी मिटाओ" से शरू हुआ कांग्रेस का यह सफ़र "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ" तक पहुच गया हैं लेकिन कांग्रेस के इन नारों से इन लोगो की  न गरीबी ख़त्म हुई और न मदद का हाथ इनके पास तक पहुच सका लेकिन इन सबके बीच सियासी सफ़र जारी है.......................... 

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

डीटीसी की नहीं एक अनोखे कर्मचारी की कहानी

"५७साल से आपकी सेवा में" डीटीसी का यह बोर्ड पिछले एक साल से दिल्ली की पेरिसनुमा सड़को से नदारद है,  आधुनिकता की दौड़ में चमचमाती लो फ्लोर बसे दिल्ली का दिल जितने में अभी भी संघर्ष करती नजर आ रही है. सत्तावन सालो से दिल्ली का बोझ ढोती डीटीसी का भले ही मेकअप हो गया हो लेकिन नोनिहाल आज भी ९७के पुराने  समय में जी रहे है, जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्रों का बस पास बनाते बनाते नोनिहाल ने जेएनयू के कई छात्रों को उंचाइयो तक पहुचते हुए देखा है. दिल्ली के सबसे शांत और खूबसूरत इलाके में बसे इस विश्वविद्यालय का प्यार उनके डिपार्टमेंट के प्यार से भी काफी बड़ा हो चूका है, नोनिहाल कहते है जितना डीटीसी ने उन्हें दिया है उससे कही ज्यादा प्यार इस विश्वविद्यालय ने दिया है, वो कहते है यहाँ पूरा भारत दिखाई देता है अलग अलग राज्यों के छात्रों के पास बना कर उन्होंने उनकी भाषा भी सीखी है. नोनिहाल  अपने डिपार्टमेंट से कम तन्खुआ को लेकर नाखुश है लेकिन उन्हें इस बात की ख़ुशी है की उनके साथ के सभी कर्मचारियों का तब्दला दिल्ली के दूरदराज इलाको में  होता रहा है लेकिन उनके जेएनयू  के प्रति प्यार और अपने काम के प्रति लगाव को देखते हुए डीटीसी ने उन्हें यहा से कभी दूर नहीं जाने दिया.
               खटाखट किबोर्ड  पर चलती उंगलिया और २०इन्च के चमकदार रंगीन एलसीडी पर टिकी उनकी निघाए अपनी नौकरी  के सफ़र के पुराने दिनों को याद करती हुए थकती नहीं. सुचना प्रोद्योगिकी के इस युग में नोनिहाल आज भी, पुराने दौर में हाथ से बनाये जाने वाले पास को याद करके विंडो सेवन पर काम करना मज़बूरी बताते है. जेएनयू से पीएचडी कर रहे कलकत्ता के अनुराग गांगुली का कहना है की नोनिहाल जी ही पहले शख्स थे जिनसे वह विश्वविद्यालय में मिले तब से वह खाली समय में इनसे मिलने आते है, इनका व्यवहार घर की याद दिला देता है, छात्र गांगुली  कहते है नोनिहाल अंकल हमेशा से ही पढाई पर ध्यान लगाने की सीख देते है. कुदरत की ख़ूबसूरती को बयां करता यह विश्वविद्यालय जितना अपनी सादगी को लेकर चर्चित है  उतना ही टेफ्लास(रेस्तरो) के साथ बसा डीटीसी  बस पास का यह कार्यालय  नोनिहाल अंकल के लिए चर्चित है.
टेफ्लास के साथ बसा जेएनयू का डीटीसी कार्यालय 
                            दिल्ली के ग्रामीण इलाको को छोड़ भी दे तो, दिल्ली के दिल में बसा सिंधिया हाउस(डीटीसी बस पास मुख्य कार्यालय) के बाहर डीटीसी पास के लिए घंटो इंतजार मे खड़े लोगो कि शिकायत अक्सर कर्मचारियों  के व्यवहार को लेकर रहती है, यकिन न आए तो आसपास के डीटीसी बस पास डिपो में घूम आइए दो तीन बार अगर फॉर्म में खामिया न गिना दे तो आश्चर्यजनक नहीं  होगा असल में यह कर्मचारियों की  परम्परा बन चुकी है लेकिन इस परिपाटी को तोड़ते हुए  "नोनिहाल अंकल" लोगो में सरकारी कर्मचारियों को लेकर बनी छवि को गलत साबित कर रहे है. डीटीसी के खस्ताहाल बस पास कार्यालयों  कि दास्ता दिल्ली के कई पत्रकार चिल्ला चिल्ला कर बता चुके है लेकिन जेएनयू  के इस अनोखे कार्यालय की  कामयाबी मीडिया के कैमेरो में नजर नहीं आती शायद मीडिया के चमचमाते कैमरे "नोनिहाल अंकल" कि सादगी और उनके काम के प्रति लगाव से इसलिए दूर भागते है क्योकि सेटेलाइट के मालिक मौत बेचना पसंद करते है जिंदगी दिखाना नहीं.
                            ५८साल के "नोनिहाल अंकल" अपनी उम्र को लेकर चिंतित नहीं लेकिन डीटीसी से जल्द रिटारमेंट को लेकर दुखी है क्योकि वह चाहते है जेएनयू का साथ उनसे कभी छूठे नहीं, अगली बार जेएनयू जाना हो तो नोनिहाल अंकल से मिलना मत भूलिएगा. यह ५७साल पुरानी  दिल्ली का बोझ ढोती डीटीसी कि कहानी नहीं बल्कि डीटीसी में काम कर रहे अनोखे कर्मचारी की कहानी है. भले ही डीटीसी ने पेरिसनुमा सड़को पर दोड़ने के लिए अपनी सादगी को खो दिया हो लेकिन नोनिहाल अंकल आधुनिकता कि इस दौड़ में बदलना नहीं चाहते.
  
नोट. नोनिहाल अंकल और डीटीसी कार्यालय की फोटो न दिखाए जाने के लिए खेद है, आखिरी समय में मेरे कैमरे ने मेरा साथ छोड़  दिया था.

सोमवार, 17 जनवरी 2011

बांदा लाइव.......

छोटे परदे की शूटिंग छोड़कर बांदा पहुची स्मृति ईरानी किसी सीरियल की शूटिंग के लिए नहीं बल्कि बतौर  नेता वोट जुटाने, यह नकली सेट बनाए बड़े परदे की फिल्म नहीं है यह  हकीकत से रूबरू कराती आज की बांदा लाइव है. मीडिया के कैमेरो और राजनेताओ की भीड़ के बीच बांदा की पीड़ित लड़की की माँ का यह कहना की "हमे ये सब जेल से भी ज्यादा भयंकर  लगता है" असल में पीपली लाइव के नत्था की याद दिला देता है जहाँ संवेदनहीनता के अलावा कुछ नहीं है, यही हाल बांदा में भी है जहाँ बलात्कार की पीड़ित को इंसाफ की जगह जेल मिलती है और मीडिया के कैमेरो की कैद और तमाम राजनेताओ की भीड़ में पीड़ित लड़की की डरी, सहमी हुई माँ को इन  नेताओ की सही मायने में संवेदना तो नहीं मिलती दिखाई देती लेकिन देश की व्यवस्था की हार जरुर दिखाई देती है. सत्ताधारी दल के बलात्कारी विधायक का मीडिया के सामने बिना डरे मुस्कराना यह दर्शाता है की २१सदी का भारत सविधान की प्रस्तावना में तो मजबूत है लेकिन असल ज़िन्दगी में नहीं.
                  पीपली  लाइव ने जो सामाजिक राजनीतिक विफलता प्रस्तुत की थी वो नई नहीं है, यह निरंतर चलने वाली प्रकिया बन कर रह गई है दरअसल यह हमारे समाज की तो विफलता है लेकिन नेताओ की सफलता , एक ऐसी संजीवनी जो उन्हें पीड़ित लड़की की माँ को झूठी सहानुभूति देकर सत्ता में जरुर पंहुचा देगी . चुनाव नजदीक है मुद्दों को भुनाने में ज्यादा समय नहीं लगता और इन भुनाए गए मुद्दों से यक़ीनन सत्ता की चाबी यही बेवकूफ जनता देगी इसी विश्वास  से बांदा में पीड़ित लड़की के घर मौजूद  सभी नेताओ ने डेरा तो डाल दिया लेकिन पीड़ित आज भी न्याय के सपने आखों में लिए खबरिया चेंनलो के कैमेरो पर इसलिए चिल्ला रही है  क्योकि वो जानती है पीपली लाइव में अंत में नत्था को तो न्याय नहीं मिल पाया था शायद असल जिदंगी की इस बांदा लाइव में उसे न्याय मिल जाए.

            अनुषा रिजवी ने नत्था को इस नेताओ के चुंगल से तो मुक्त कराने की कोशिश की थी लेकिन असल ज़िन्दगी की इस बांदा लाइव की पीड़ित को कौन न्याय दिलाएगा?  यह टीआरपी की नशे में चूर किसी खबरिया चैनल की एक्सक्लूसिव  स्टोरी नहीं बल्कि भारत के हर कोने में घटने वाली सच्ची कहानी है फर्क सिर्फ इतना है की  राहुल गाँधी, स्मृति ईरानी जैसे नेताओ के किसी दलित के घर खाना  खाने या झूठी संजीदगी दिखाने से कभी कभी ऐसी असल कहानी हमारे सामने आ जाती है.                      

सोमवार, 3 जनवरी 2011

अपने वजूद को तलाशता लोकतंत्र

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मतदाता पहचान पत्र हासिल करने की हमारी रूचि छिपी नहीं है.  वोट देने से ज्यादा सिम खरदीने में यह जरुरी जो है. वास्तव में जिस दिन मतदाता पहचान पत्र की केवल मतदान डालने में ही प्रयोग की सरकारी घोषणा हो जाए तो, किसी महंगे मल्टीप्लेक्स में सिनेमा की टिकट महंगी होने पर लाइन से हट जाने का जो भाव आता है यही भाव पहचान पत्र हासिल करने की जुगत में लगे लोगो के मन में जरुर आ जाएगा. लोगो के वोट देने का अधिकार देने भर से ही लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.लोकतंत्र ,व्यवस्था या संस्थाओ के लोकतान्त्रिक कार्यो से जाना जाता है, हमारे कार्य, सोच कितनी लोकतान्त्रिक है ये ही एक लोकतान्त्रिक होने के आदर्श  मापदंड है. विनायक सेन जैसे आवाज़ उठाने वाले लोगो को जेल में और जनता के पैसे लुटने वाले को सत्ता के खेल में जगह जिस देश में मिलती हो उसे लोकतंत्र कहना बेमानी होगा. इस लिहाज से आजाद होने के ६३ साल में भारत लोकतंत्र के आदर्श मापदंडो पर सही से खरा उरता नहीं दिखाई देता.
    
मीडिया में सुर्खिया पाए देश के अलोकतांत्रिक कार्यो को छोड़ भी दिया जाए तो, एक आम नागरिक द्वारा किसी पुलिस थाने में शिकायत करने में उसकी हिचकिचाहट, सरकारी दफ्तरों में बार बार जाने में घिसते जूते, अपने ही जन प्रतिनिधियों से बात करने में डर का भाव और जंतर मंतर में आन्दोलन कर रहे आम जन पर पुलिस के डंडो की मार मार चिक चिक कर यह बताती है की हम कितने परिपक्व राजनितिक व्यवस्था के वासी है.  इस देश में मीडिया की भूमिका पर नजर दोडाए तो निराशा ही हाथ लगती  है ,मीडिया न कहकर कॉरपोरेट मीडिया कहे तो तर्कसंगत होगा. आज़ादी  की लड़ाई में जिन आन्दोलनों ने हमे आजाद कराया आज उन्ही आन्दोलनों को चलाना पैसो पर टिका है जिसके पास सबसे ज्यादा पैसा  उतनी ही आन्दोलन की गूंज गूंजेगी  जिसके  पास पूंजी नहीं वो जन्तर मंतर पर चिल्लाता चिल्लाता  मर जाएगा और कॉरपोरेट मीडिया भी पैसे वालो को कवर करेगी. लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है. रादिया टैप कांड ने मीडिया का चश्मा पहने लोगो को मीडिया का चश्मा उतारने पर भले ही मजबूर कर दिया हो लेकिन देश को सही मायने में लोकतंत्र बनाने में लम्बी दूरी तय करना अभी भी बाकी है.
               नववर्ष के मौके पर प्रधानमंत्री ने नए साल में निराशावाद को दूर करने की अपील तो की लेकिन वह भूल गए की निराशा फेलाने वालो में इस देश की राजनितिक व्यवस्था का हाथ सबसे बड़ा रहा. राजनीतिक दलों के दलीय  प्रणाली के दुरपयोग ने इसका और भी ज्यादा विकास किया खुद को लोकतान्त्रिक तरीके से कार्य का दम भरने वाली इन पार्टियों में आलाकमान का चलन शुरू हुआ है. आलाकमान यानि जिसके हाथ में सारी कमान हो जो खुद निर्णय अपने तरीके से ले .ऐसा लगता है जैसे कोई तानाशाह डंडा दिखाकर पार्टी को चलाता हो असल में, पार्टियों की ऐसी प्रणाली सही मायने में तानाशाह लगती हैं. ऐसे में लोकतंत्र  की चादर ओड़े तानाशाह रवैय्या अपनाए इन दलों से लोकतान्त्रिक व्यवस्था देने की बात हज़म नहीं होती. सविधानिक पदों का इस्तेमाल यह दल  अपने हितो की पूर्ति 
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करने में जरा भी नहीं चुकते जैसे बरसो पहले राजा अपने करीबी और हितो की पूर्ति  करने वाले को मंत्री पद देता था. सरकारी योजनाए, योजनाए कम नेताओ, नोकरशाओ के लिए बीमा पोलिसी ज्यादा लगती है .खुद सरकार ने अपने विकास कार्येक्रम को अच्छा दिखाने के लिए बीपीएल सूची में  हकदार गरीबो को शामिल ही नहीं किया. बीपीएल सूची में गरीबो के आकड़ो को लेकर सरकार और तेंदुलकर समिति के आकड़ो में ही खासा अंतर है ऐसे में सरकार से यह अपेक्षा करना की वो सही मायने में आम जन विकास करेगी किताबी बाते लगती है लेकिन फिर भी हमे दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक, महान देश होने का गुरुर है वास्तव में महानता को सही अर्थो में देखे जाने की जरुरत आ पड़ी है. जिस देश में सड़क पर ठण्ड में सिकुड़ते लोगो के लिए उच्चतम न्यायालय खुद ह्स्त्षेप करके सरकार को रेन बसेरा बनाने का आदेश देता हो क्या वो देश वाकई में महान है? स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा देश को विश्व का सबसे बड़ा और सफल लोकतान्त्रिक देश बताना जायज है? क्या वाकई में हम लोकतान्त्रिक हो गए की हमे अपनी बात रखने की आज़ादी है? इन सवालो पर आत्ममंथन करने की जरुरत है. संसद ठप(करोड़ का नुकसान) करके जिस तरह इस देश के विपक्ष ने जेपीसी को लेकर कोशिश की हैं अगर इस सवालों को सुलझाने में गंभीरता दिखाई होती तो सही मायने में हम महान और आदर्श लोकतान्त्रिक देश कहलाते.
     लम्बे समय से ठन्डे बसते में पड़ा लोकपाल बिल आज भी बसते से बाहर निकलने को आतुर है लेकिन हमारे सांसदों की पैसो की भूख इस विधयक के प्रति तो उदासीनता दिखाती है  लेकिन अपने आमदनी बड़ाए जाने के प्रति रूचि. तो वही आरटीई, शिक्षा का अधिकार कितने सही तरीके से लागू किया गया यह सबके सामने है. लगातार आरटीआई  कार्यकर्ताओ की हत्याए हो रही है, समाज के गरीब वंचित तबके के बच्चे स्कूलों में दाखिला , पड़ने के मकसद से नहीं बल्कि पेट भरने के कारण लेते है. ऐसे में देश का सर्व शिक्षा अभियान कहा गया? यह प्रश्न चिन्ह बनकर खड़ा है?  विदेशी प्रधानमंत्रियो और राष्ट्रपतियों के भारत दौरे पर भारत को उभरती हुई ताकत बता देने से हम गर्व से फुले जाते है. स्टेडियम में भारतीय धावक को दौड़ में आगे बड़ने का होसला देकर हम एकता की मिसाल दिखाते है लेकिन मेक्डोनाल्ड, डोमिनोज में किसी गरीब वंचित बच्चे के आ जाने पर हेरानगी जताते, दयनीय तोर पर देखते है शायद यही महानता है इस देश की. इसे ही ताकत कहते है. भूखे देश में राजीव गाँधी का यह कथन की "एक रूपये  देने की सरकार की कोशिश जरुरतमंदो तक दस पैसे के रूप में पहुचती है" आज भी काफी प्रसांगिक है" यानि  नब्बे पैसे देश के पिछड़े, वंचित लोगो की भूख नहीं मिटाता लेकिन भ्रष्ट  नेताओ, कॉरपोरेट दलालों, नोकरशाहो की लालची भूख को बड़ाता है
                              देखा जाए तो लोकतंत्र व्यापक  एक आदर्श व्यवस्था हैं हम इस आदर्श व्यवस्था के बालकाल में ही खड़े दिखाए देते है. परिपक्व लोकतंत्र तब ही बन सकेंगे जब कहने भर से ही नहीं अपने विचार और कार्यो से लोकतंत्र को साबित कर सकेंगे.

                                  
                        ९ फरवरी२०११ जनसत्ता के समांतर में प्रकाशित